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देसी बॉयज : फिल्म समीक्षा

बैनर : इरोज इंटरनेशनल मीडिया लि., नेक्स्ट जेन
निर्माता : विजय आहूजा, कृषिका लुल्ला, ज्योति देशपांडे
निर्देशक : रोहित धवन
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार : अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण, जॉन अब्राहम, चित्रांगदा सिंह, अनुपम खेर, संजय दत्त, ओमी वैद्य, मोहनीश बहल
सेंसर सर्टिफिकेट : (ए) * 2 घंटे 5 मिनट * 14 रील
रेटिंग : 2/5

रोहित धवन अपने पिता डेविड धवन की फिल्मों को लाउड बताते हैं, लेकिन डेविड ने कई ऐसी फिल्म बनाई हैं जो लाउड होने के बावजूद भरपूर मनोरंजन करती हैं जबकि रोहित निर्देशित पहली फिल्म ‘देसी बॉयज़’ में कई बोरियत भरे क्षण आते हैं। निर्देशन के साथ-साथ रोहित ने फिल्म को लिखा भी है। निर्देशक के रूप में रोहित का काम बेहतर है और उन्हें फिल्म मेकिंग की समझ है, लेकिन लेखक के रूप में अभी वे कच्चे हैं।

आर्थिक मंदी के चलते फिल्म के हीरो की नौकरी छूट जाती है। वह और उसका दोस्त मेल एस्कार्ट बन जाते हैं क्योंकि एक को अपनी गर्लफ्रेंड के खर्चे उठाने हैं तो दूसरे को अपनी बहन के बेटे की स्कूल की फीस भरनी है। मेल एस्कॉर्ट बनते तो उन्हें दिखा दिया गया, लेकिन इस विषय पर रोहित की दुविधा साफ नजर आती है।

उन्हें अपने परंपरागत दर्शकों का ख्याल आता है कि वे क्या सोचेंगे? जिस तरह से पहले हीरोइनों को ‍पवित्र दिखाया जाता था उसी तरह उन्होंने अपने हीरो पर भी कोई धब्बा नहीं लगने दिया। दोनों हीरो फैसला करते हैं कि वे मेल एस्कॉर्ट तो बनेंगे, लेकिन सेक्स नहीं करेंगे।

चित्रांगदा- अक्षय कुमार
अब ये इतने ही समझदार हैं, तो कुछ दूसरा काम भी कर सकते थे, लेकिन एक हीरो के पास एमबीए की डिग्री है, भला वह टेक्सी कैसे चला सकता है, हां मेल एस्कॉर्ट जरूर बन सकता है। ये काम उसे ज्यादा इज्जत वाला लगता है। रोहित द्वारा इस विषय को सतही तरीके से छूने के कारण फिल्म देखते समय खलल पैदा होता है।  

बहुत जल्दी ही दोनों हीरो को समझ में आ जाता है कि वे गलत राह पर हैं। इसलिए जैरी (अक्षय कुमार) अपनी अधूरी शिक्षा को पूरा करने के लिए कॉलेज में एडमिशन ले लेता है ताकि डिग्री हासिल कर ढंग की नौकरी हासिल कर सके। हालांकि इस प्रसंग में कॉमेडी की अच्छी खासी गुंजाइश थी, लेकिन स्क्रिप्ट के कमजोर होने के कारण यह पूरा प्रसंग बचकाना लगता है। इसी तरह कुछ दृश्य भी हैं, जिनमें दर्शकों को हंसाया जा सकता था।

भारतीय दर्शकों की रूचि देखते हुए इमोशन भी डाले गए हैं, लेकिन इन दृश्यों के लिए जगह बनाने की कोशिश साफ नजर आती है, जिससे ये अपना असर खो बैठते हैं। अक्षय अपने भांजे की फीस जमा नहीं कर पाता है और उसे एक परिवार एडॉप्ट कर लेता है, लेकिन अक्षय की गरीबी कहीं नजर नहीं आती इसलिए दर्शक भावुक नहीं हो पाता।

एक दृश्य टाट के पैबंद की तरह है जिसमें दर्शकों के देशप्रेम को जगाने की कोशिश की गई है। एक गोरा प्रोफेसर भारतीयों को कोसता है तो स्टुडेंट बने अक्षय उसे जवाब देते हैं कि जीरो और ईमेल का अविष्कार एक भारतीय ने किया है।

फिल्म का ग्राफ शुरु से लेकर अंत तक नीचे की ओर आता है और आखिरी घंटे में तो फिल्म खींची गई है। दीपिका पादुकोण को जॉन अब्राहम आधी फिल्म में मनाते ही रहते हैं। उनके यह दृश्य दोहराव के शिकार है। आखिर में कोर्ट रूम वाला सीन बेहूदा है, जिसमें देसी बॉयज के मालिक संजय दत्त जज की टेबल पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं। फिल्म का अंत भी अधूरा-सा है।

जॉन-दी‍पिका

सकारात्मक पक्ष की बात की जाए तो अनुपम खेर, संजय दत्त और ओमी वैद्य वाले दृश्य मनोरंजक हैं। फिल्म का संगीत अच्छा है और सबसे बड़ी बात ये कि फिल्म जल्दी खत्म हो जाती है।

अक्षय कुमार ने अपनी एक्टिंग के जरिये स्क्रिप्ट से ऊपर उठने की कोशिश की है। हास्य के साथ-साथ इमोशनल सीन में भी उनका अभिनय अच्छा है। जॉन रफ-टफ रोल में ही अच्छे लगते हैं। हास्य और रोमां‍टिक सीन करना उनके बस की बात नहीं है। फिर भी उनका अभिनय सुधार की दिशा में है। डांस करते समय भी वे असहज नजर आते हैं। दीपिका पादुकोण और चित्रांगदा सिंह ने फिल्म के ग्लैमर को बढ़ाया है। संजय दत्त, अनुपम खेर और ओमी वैद्य राहत प्रदान करते हैं।

कुल मिलाकर ‘देसी बॉयज’ में दम नहीं है।



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