जिस जोश से अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए जन लोकपाल बिल के लिए आंदोलन किया था उसे देखकर उन्हें दूसरे गांधी के नाम से पुकारा जाने लगा था। बरसों से भ्रष्टाचार से पीड़ित आम जनता ने नेताओं, नौकरशाहों और लालफीताशाही के खिलाफ अन्ना की इस लड़ाई में जोरशोर से भाग लिया।
शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक को पारित करने की मांग पर अन्ना को मिले व्यापक जनसमर्थन से सभी राजनैतिक पार्टियां चौकन्नी हो गईं। जनता की मंशा भापते हुए यूपीए नीत केंद्र सरकार ने अन्ना और उनके सहयोगियों की उम्मीद के विपरीत एक कमजोर व बिल पारित कर भी दिया। इसके बिरोध में अन्ना एक बार फिर अनशन पर बैठे। इस बार उन्होंने अपने गृहराज्य महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को अनशन के लिए चुना।
दिल्ली के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में हुए अनशन के दौरान अन्ना के लोकपाल आंदोलन को जितना जन-समर्थन प्राप्त हुआ था, वो इस बार नहीं तो मुंबई में दिखाई दिया और ना तो दिल्ली में। दो ही दिनों में शायद भीड़ जमा नहीं होने और ख़राब स्वास्थ्य के कारण अन्ना हज़ारे को अपना अनशन तोड़ना पड़ा। इसके साथ ही जेल-भरो आंदोलन समेत सभी कार्यक्रम भी वापस ले लिए गए।
अन्ना और उनकी टीम द्वारा एकाएक लिए गए इस यू टर्न पर मीडिया में जमकर विचार मंथन शुरू हो गया है। कुछ इसे अन्ना की लोकप्रियता का नीचे गिरता ग्राफ बता रहे हैं तो कुछ इसके लिए केजरीवाल और किरण बेदी के अभिमानी रवैये को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि अन्ना हजारे को चाहिए था कि वे सरकार या संसद पर दबाव डालने के बजाए लोकसभा चुनाव तक इंतज़ार करते और जनता के बीच जनलोकपाल का मसौदा ले जाकर उनसे अपील करते कि वो इस बिल को स्वीकार और लागू करने वाली पार्टी को ही वोट करें।
लोगों का अन्ना के साथ जुड़ने का एक बहुत बड़ा कारण था कि उनका एजेंड़ा राजनैतिक नहीं था पर पिछले कुछ दिनों में अन्ना का रुख बदला है। अब यह आंदोलन एंटी करप्शन न हो कर एंटी कांग्रेस प्रतीत हो रहा है। कुछ राजनैतिक पार्टियों ने अन्ना के साथ मंच पर आकर इसे एक राजनैतिक आंदोलन देने की पूरी तैयारी कर ली है। वजह चाहे जो भी हो इसमें कोई शक नहीं कि अन्ना हजारे ने एक ऐसे मुद्दे पर जनता को एकजुट किया जो आने वाले समय में भारत की तस्वीर बदल सकता है।
Girish Srivastava |
शीतकालीन सत्र में लोकपाल विधेयक को पारित करने की मांग पर अन्ना को मिले व्यापक जनसमर्थन से सभी राजनैतिक पार्टियां चौकन्नी हो गईं। जनता की मंशा भापते हुए यूपीए नीत केंद्र सरकार ने अन्ना और उनके सहयोगियों की उम्मीद के विपरीत एक कमजोर व बिल पारित कर भी दिया। इसके बिरोध में अन्ना एक बार फिर अनशन पर बैठे। इस बार उन्होंने अपने गृहराज्य महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई को अनशन के लिए चुना।
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दिल्ली के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में हुए अनशन के दौरान अन्ना के लोकपाल आंदोलन को जितना जन-समर्थन प्राप्त हुआ था, वो इस बार नहीं तो मुंबई में दिखाई दिया और ना तो दिल्ली में। दो ही दिनों में शायद भीड़ जमा नहीं होने और ख़राब स्वास्थ्य के कारण अन्ना हज़ारे को अपना अनशन तोड़ना पड़ा। इसके साथ ही जेल-भरो आंदोलन समेत सभी कार्यक्रम भी वापस ले लिए गए।
अन्ना और उनकी टीम द्वारा एकाएक लिए गए इस यू टर्न पर मीडिया में जमकर विचार मंथन शुरू हो गया है। कुछ इसे अन्ना की लोकप्रियता का नीचे गिरता ग्राफ बता रहे हैं तो कुछ इसके लिए केजरीवाल और किरण बेदी के अभिमानी रवैये को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि अन्ना हजारे को चाहिए था कि वे सरकार या संसद पर दबाव डालने के बजाए लोकसभा चुनाव तक इंतज़ार करते और जनता के बीच जनलोकपाल का मसौदा ले जाकर उनसे अपील करते कि वो इस बिल को स्वीकार और लागू करने वाली पार्टी को ही वोट करें।
लोगों का अन्ना के साथ जुड़ने का एक बहुत बड़ा कारण था कि उनका एजेंड़ा राजनैतिक नहीं था पर पिछले कुछ दिनों में अन्ना का रुख बदला है। अब यह आंदोलन एंटी करप्शन न हो कर एंटी कांग्रेस प्रतीत हो रहा है। कुछ राजनैतिक पार्टियों ने अन्ना के साथ मंच पर आकर इसे एक राजनैतिक आंदोलन देने की पूरी तैयारी कर ली है। वजह चाहे जो भी हो इसमें कोई शक नहीं कि अन्ना हजारे ने एक ऐसे मुद्दे पर जनता को एकजुट किया जो आने वाले समय में भारत की तस्वीर बदल सकता है।
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